Thursday 16 February 2017

दिल -ए -नादान तुझे हुआ क्या है ..........

ग़ालिब एक ऐसा नाम जिसके बिना हर शायरी हर ग़ज़ल की महफ़िल अधूरी है ..या यूँ कहूँ  की  किसी के अकेलेपन का साथी तो किसी की मोहब्बत है ग़ालिब ...आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक कोन जीता है  तेरे जुल्फ के सर होने तक या दिल ए  नादान तुझे हुआ क्या है या उनकी  कोई भी ग़ज़ल क्यूँ  ना सुनी जाये यूँ  लगता है की वो ना सिर्फ ग़ालिब की ज़िन्दगी या उनका हाल -ए- दिल  बल्कि हमारी ज़िन्दगी हमारे ख्यालों  को भी बयाँ करती हैं  ग़ालिब की शायरी उनकी ज़िन्दगी और उनकी बेशकीमती ग़ज़लों से मेरी  मुलाक़ात  गुलजार साहब की नज्मे पढने और जगजीत जी की ग़ज़लों को सुनने के दौरान हुई .यह दोनों ना सिर्फ मेरे लिए  बल्कि ना जाने कितने और लोग होंगे जिनको ग़ालिब को जानने और पढने का चस्का इनकी वज़ह से लगा होगा ..गुलजार का सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब और जगजीत सिंह की वो आवाज़ दोनों की ही उस शानदार कोशिश ने ना जाने कितने लोगो को उनका दीवाना बना दिया ..1988 में डीडी नेशनल पर आया मिर्ज़ा ग़ालिब  सीरियल जिसके लिए गुलज़ार भी अपने आप को खुशकिस्मत  मानते है की यह अच्छा काम उनके हाथों हुआ ..आखिर जिसमे जगजीत और चित्रा जी की दिल को छु लेने वाली आवाज़ और नसीरुद्दीन शाह  की बेमिसाल एक्टिंग हो  वो काम तो बेहतरीन होना ही था ..लगा ही नहीं की  सीरियल है  यूँ लगा की मिर्ज़ा ग़ालिब हकीकत  में परदे पे उतर आये

हो ..यूँ तो ग़ालिब के ना जाने कितने किस्से है सुनाने को पर जो मुझे  इसमें एक पहलु शानदार लगता है वो है ग़ालिब का नवाब जान के लिए नजरिया ...ग़ालिब ने अपनी ज़िन्दगी कर्जदारी में गुजारी और उस वक़्त तक उन्हें जफ़र के यंहा किले में मुशायरे में कोई जगह भी नही दी गयी थी ...उनका कोई दीवान भी छपा नही था सो मीर साहब की दूकान में जाकर कुछ शेर कह आते और मीर साहब  उन्हें कागज पर लिख  लेते यूँ ही एक दिन जब मिर्ज़ा वंहा बैठे थे तो एक शेर सुनाई दिया ''दिल ही तो है संगे खिशत, दर्द से भर आये ना क्यूँ '' यह आवाज़ पास के कोठे से आ रही थी ..हाजी मीर ने कहा शेर तो मिर्जा आप ही का है मिर्ज़ा ने हामी भरी और कहा पहली बार दिल्ली में अपना शेर किसी और की जुबान से सुन रहा हूँ ..हाजी मीर ने कहा''लेकिन आपकी ग़ज़ल वंहा तक पहुंची कैसे ..मिर्ज़ा ने कहा ''वही तो में सोच रहा हूँ यह ज़मीन की चीज़ आसमाँ की तरफ किसने उठा दी ...मिर्ज़ा का अपने कद्रदानो से एक अलग ही रिश्ता था जो  कोठे पे नाचने वाली तवायफ  के लिए भी वही इज्जत दिखाई देती जो किसी और को नसीब होती .नवाब जान की जब मिर्ज़ा से मुलाखात हुई उसके बाद तो कई और शेर कोठे से सुनाई देते'' दिल-ए -नादान तुझे हुआ क्या है आखिर इस दर्द की दवा क्या है '' इस ग़ज़ल को चित्रा जी ने अपनी सुरीली आवाज़ से नवाज़ा है
इसके सिवा फरिहा परवेज़ ने भी इसे  बड़ा अच्छा गाया है
नवाबजान 
चाहती थी की मिर्ज़ा किसी रोज़ उनके कोठे पे महफ़िल में आयें लेकिन मिर्ज़ा जा नहीं पाये उसके बाद उनकी मुलाखात दरगाह पे हुई नवाब जान ने पूछा मिर्ज़ा आप यहाँ कैसे मिर्ज़ा ने कहा ''चादर चढाने आया हूँ नवाब जान'' और तुम यहाँ कैसे नवाब जान का जवाब था ''में तो अपने शायर के लिए कामयाबी की दुआ मांगने आई हूँ 
देखिएगा किसी रोज़ मेरे शायर दिल्ली के सरताज शायर होंगे ....मिर्ज़ा ने कहा ''तुम्हारी दुआ कुबूल  हुई तो दोशाला पेश करने तुम्हारे घर जरुर आऊंगा ''उसके  बाद मिर्ज़ा दिल्ली के सरताज शायर बने  लेकिन वादा निभाने को मिर्ज़ा तो थे पर नवाब जान दुनिया को अलविदा कह गयीं ..मिर्ज़ा नवाब जान की कब्र पर दोशाला चढ़ा आये जहाँ उन्ही का एक शेर लिखा था ''ये ना थी हमारी किस्मत की विशाले यार होता,अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता ''


ग़ालिब की शायरी उनकी ग़ज़लें कितनी समझ आती है कितनी रह जाती है उनका तो कहा नहीं जा सकता मगर इतना मालुम है गर कुछ अल्फाज़ भी समझ पड़ते है तो वो पूरी ग़ज़ल उतना ही सुकून दे जाती है की उसको बार -बार सूनने को दिल करता है चित्रा जी जगजीत जी की आवाज़ ग़ालिब की आवाज़ की तरह दिल पर राज करती है जगजीत जी के लिए  जनाब वसिम बरेलवी ने तो यहाँ  तक कहा  की ''गर आज ग़ालिब जिंदा होते तो दुबारा खुशी से मर जाते की यह इंसान मेरी रूह तक कैसे पहुँच गया ''..ग़ालिब के बारे में लिखने को काफी कुछ है लेकिन वो भी अधुरा ही लगता है एक किस्सा इतना बड़ा हो जाता है की वक़्त उसी में गुजर जाता है ..और उनको पढने के बाद आपकी शायरी में भी कुछ वक़्त तो उन्ही का असर नजर आता है शुरू में जब में कुछ लिखने लगा  था तो शेर के बीच उनका ही नाम लिख देता ''बेइंतेहा कोशिश की तारीफ़ के अल्फाज तराशने की ए ग़ालिब
पर इस हुनर ए सादगी को बयाँ कर पाये वो अल्फाज़ ना मिले ''..अंत में यही कहना मुनासिब है की किसी दिन ग़ालिब ज़माने के कर्जदार थे और आज ज़माना ग़ालिब का ..

No comments:

Post a Comment